Aug 22, 2017

सिनेमा,सीरियल ही अश्लीलता बढ़ाने के प्रमुख कारण है !

आज के दैनिक जीवन में सिनेमा,सीरियल ही अश्लीलता बढ़ाने के प्रमुख कारण है !  कुछ तत्व हमारे युवाओ पर अश्लीलता का कलंक थोप रहे है। पर इनमे सबसे प्रमुख सिनेमा तो इस घृणित मनोवृत्ति का सबसे बड़ा पृष्ठ-पोषक है। सच पूछा जाये तो गन्दे साहित्य,धारावाहिक(serial) और फिल्मो की जो बढ़ोत्तरी इन दिनों हुयी है उसका मूल कारण है ये सिनेमा ! वर्षो से ये प्रेम(शारीरिक) गीत गा रहा है और कामुकता को भड़काने वाले दृश्य दिखाता रहा है। धीरे-धीरे इन बातो ने समाज के एक बड़े भाग के दिमाग को प्रभावित कर दिया है और आज युवक ही नही छः और आठ वर्ष के बच्चे सिनेमा के श्रृंगार-रस के गाने गाते दिखाई पड़ते है। बहुत थोड़े घर ऐसे है जो इस सत्यानाशी लहर के प्रभाव से बचे है। नही तो क्या जवान स्त्री-पुरुष और क्या लड़के और बूढ़े भी सब सिनेमा के दिवाने हो रहे है। यह स्थिति देश और समाज के कल्याण की दृष्टि से अत्यंत घातक और अहितकर है और राष्ट्र के कर्णधारों तथा शुभाकांक्षियो को इसके निराकरण का प्रयत्न अवश्यमेव करना चाहिए। अन्यथा सामाजिक मर्यादाएँ छिन्न-भिन्न होती रहेगी। सिनेमा एक ऐसा प्रभावशाली साधन है कि उसका सदुपयोग किया जाये तो शिक्षक,स्त्री-पुरुष की मनोवृत्तियों को सदगुणों और सदाचार की तरफ मोड़ने का कार्य बड़ी सफलता पूर्वक किया जा सकता है। रूस ने शिक्षा प्रचार का कार्यक्रम शीघ्र पूरा करने के लिए सिनेमा का ही सहारा लिया था और कुछ ही वर्षो में अपने देश से निरक्षरता का चिन्ह मिटा दिया था। इसी प्रकार देश में कोई संकट आने पर सिनेमा द्वारा लोगो में सेवा,सहयोग और देशभक्ति के भावो को उत्तेजित करने में बहुत कुछ साधन और  सहायता प्राप्त किये जाते है। पर हमारे देश में इस प्रकार के लाभों के स्थान पर इसका दुरूपयोग ही देखने को आ रहा है। यहां सिनेमा उद्योग कुछ धन लोलुप और चरित्र,नीति,धर्म आदि की तरफ उपेक्षा भाव रखने वाले व्यक्तियो के हाथ में आ गया है। उन्होंने लोगो की हीन वृत्तियों को भड़काकर अपना स्वार्थ सिद्ध करने को ही मुख्य लक्ष्य बना लिया है इससे लोगो का बड़े ही तेज़ी से पतन होता जा रहा है और विशेष रूप से लड़को और युवको में तरह तरह के दोष घर करते चले जाते है। सिनेमा के सम्बन्ध में एक अभियोग का फैसला करते हुए मद्रास के चीफ प्रेसीडेंसी मैजिस्ट्रेट ने लिखा था- सिनेमा वर्तमान युग का एक अभिशाप है,उसने माननीय कुलो की हज़ारो कुमारियों को नाचने वाली वेश्या और लड़को भाँड बना दिया है।

इन दिनों सिनेमा में शिक्षा और नीति की जो कुछ चर्चा की जाती है वह इसके दोषो को ढ़कने के लिए है। उनका लक्ष्य तो केवल रुपया कमान है। कुछ खेल,धार्मिक कथानकों पर बनाये जाते है और कुछ का उद्देश्य नैतिक आदर्शो की स्थापना करना बतलाया जाता है और कुछ का उद्देश्य नैतिक आदर्शो की स्थापना करना बतलाया जाता है,पर वे भी अभिनय को आकर्षक बनाने के लिए बिगाड़ दिए जाते है। सिनेमा और धारावाहिक संचालक जानते है कि जब तक सुंदर अभिनेत्रियों के हाव-भाव और उत्तेजक गाने नही होंगे तब तक साधारण दर्शक फ़िल्म और धारावाहिक देखने को न टूटेंगे। यदि कोई एकाध खेल को शिक्षाप्रद बनाने की चेष्टा भी करता है तो उसे अन्य श्रृंगार और विलास की भावनाओ से पूर्ण फिल्मो की अपेक्षा कम सफलता मिलती है और तब वह भी किसी बहाने पतनकारी प्रणाली में ही चलने लगता है। इनका विवेचन करते हुए लेखक ने ठीक ही लिखा है-“प्रत्येक चित्र में ऐंद्रिक तत्वों को गुदगुदाने वाली,उद्दात वासना को प्रदीप्त करने वाली सामग्री भरपूर रहती है, जिसका स्पष्ट प्रभाव दर्शको के मन पर पड़ता है। इसे मनोरंजन कहना स्वतः को धोखा देना है। यह असयंमित ही समस्त दुखो और क्रोध के मूल में काम करती है। इसका परिणाम यह होता है कि कलाकारों का अत्यंत परिश्रम से तैयार किया हुआ चित्र अधिकांश दर्शकों के लिए वासनामय सिद्ध होता है। जनता इतनी तो समझदार सूक्ष्मदर्शी होती नही कि वह चित्र का सार-भाग ग्रहण करे और निरर्थक को छोड़ दे। उसे तो जहां उत्तेजक और भड़कीले चित्र दिखाई दिए, इन पर लट्टू हो जाती है।

अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोगो का यही हाल है। कथाकार का सारा परिणाम दर्शको की वासना उद्दीप्त करने का एक खिलवाड़ मात्र बन जाता है।”
सिनेमा ने न केवल टिकिट खरीदकर सिनेमा हाल के भीतर जाने वाले दर्शको का ही पतन नही किया है वरन् समस्त देश के वातावरण को गन्दा और विषाक्त बना दिया है। आज प्रत्येक शहर की मुख्य सड़को पर अभिनेत्रियों और अभिनेताओ के अश्लीलतापूर्ण भावभंगी वाले बड़े-बड़े पोस्टर चिपके दिखाई पड़ते है, प्रचार के माध्यम से भी ऐसे तत्वों को बढ़ावा दिया जा रहा है। वे भी लोगों में दूषित मनोविकार उत्पन्न करने का साधन बनते है। गली-गली में बड़े लड़के ही नही छोटे-छोटे बच्चे भी सिनेमा के गन्दे गाने बड़ी लय और अदा से गाते फिरते है। स्त्रियों ने प्राचीन घर गृहस्थी की बातो से सम्बंधित गीतों को छोड़ सिनेमा की तर्ज़ पर बने निकृष्ट गीतों को अपना लिया है और धारावाहिको में देख-सुन कर गलत संस्कार को अपना रही है। विवाह शादियों और साधारण उत्सवो में भी सिनेमा के श्रृंगार रसपूर्ण गानो का धड़ल्ले के साथ प्रचार और प्रसार किया जाता है। इस प्रकार सर्वसाधारण में अश्लीलता की वृद्धि होती है और नैतिक भावो का पतन हौ रहा है। इस प्रकार से यह समस्त देश सिनेमा के दूषित संगीत से गूंज रहा है और लोकहितैषी मनीषी इस भयंकर नाद को देखकर ठगे से खड़े है।
सिनेमा द्वारा होने वाले धन नाश के सम्बंध में मद्रास के एक भूतपूर्व मुख्यमंत्री का यह कथन भी ध्यान देने योग्य है-
“सिनेमा निर्माता गरीबो की कठिन कमाई का शोषण कर रहे है। वे मनुष्यो की कमजोरियों को जानते है और गन्दे चित्र निर्माण कर,लोगों की नीच प्रवत्तियों को उत्तेजित कर उन्हें दुर्भाग्य की ओर प्रेरित करते है। सिनेमा के चित्र लोहो के दिमाग को सड़ा देते है जिससे वे इस प्रकार की बात सोचने लगते है जो उनको हर तरह से नीचे गिराती है।”
गन्दी तस्वीरो का प्रचलन भी अश्लीलता की वृद्धि में साधना का काम करता है। अश्लीलता की इस वृद्धि ने हमारी नारी-समाज का बड़ा अपमान किया है और पुरुष उसे देवी और माता के पद से घसीट कर कामुकता के भाव दिखलाने वाली नर्तकी या वेश्या बना देने की भावना करने लगा है। यह ऐसा जघन्य पाप है जिससे व्यक्ति के साथ समाज का अधःपतन भी अवश्यम्भावी है। जो लोग इस प्रवृत्ति को जन्म देते है वे चाहे सिनेमा निर्माता हो, चाहे श्रृंगारिअ कवि हो या गन्दे उपन्यास के लेखक हो,एक अक्षम्य अपराध करते हैं। क्योंकि इनके प्रभाव से लोगो में अश्लीलता की उत्पत्ति होकर उनका चरित्र भ्रष्ट होता है जो राष्ट्रोन्नति की दृष्टि से एक बड़ा शोचनीय तथ्य है। अश्लीलता मानवीय आस्था को नष्ट कर डालने वाली डायन है। आस्थाहीनता से अश्लीलता जन्मती है। अश्लीलता असभ्यता की बहुत बड़ी पहचान है और असभ्यता पशुता का लक्षण है। इसका ठीक-ठीक अर्थ है कि जो अश्लील है वो पशु है और मनुष्य होकर पशुता का लांछन लेने से बढ़कर कोई दुर्भाग्य नहीं। आठ मनुष्य बने रहने और उससे बढ़कर देवत्व के समीप पहुंचने के लिया मनुष्य को अपने जीवन से अश्लीलता का एकदम बहिष्कार कर देना चाहिए। उसे चाहिए कि न तो वह स्वयं अश्लील बने और न किसी अश्लीलता को पास फटकने दें।

आप से निवेदन है कि इस पोस्ट को दूर दूर तक फ़ैलाने में सहयोग दे। बड़ी मेहनत से अपने और परम् पूजनीय श्री रामशर्मा आचार्य जी के विचारो को लिख कर फ़ैलाने की कोशिश है।
आप भी अपने विचार दे जिससे इसकी रोकथाम और इसका सदुपयोग करने की दिशा में कोई क्रांति आ सके !

लेखक- पंडित श्री राम शर्मा

No comments:

Post a Comment